नई दिल्ली। भारत की राजधानी दिल्ली में 26 जनवरी को हुए घटनाक्रम के उपरांत देश के कुछ पत्रकारों पर देशद्रोह का मुकदमा दर्ज किये जाने की जानकारी मिली है।
अभी कुछ ही दिन पहले मुम्बई पुलिस ने पत्रकार अर्णब गोस्वामी पर मुकदमा दर्ज करते हुए गिरफतार कर लिया था। उनकी गिरफतारी की खबर स्वयं सूचना एवं प्रसारण मंत्री प्रकाश जावड़ेकर ने ट्वीट कर दुनिया को दी थी और इसको लोकतंत्र पर हमला बताया था।
अभी जो जानकारी सामने आयी है उसमें बताया गया है कि वरिष्ठ पत्रकार राजदीप सरदेसाई और कुछ अन्य पर देशद्रोह का मुकदमा दर्ज किया गया है।
राजदीप सरदेसाई और नामजद किये गये अन्य पत्रकार उन लोगों में शामिल हैं, जिनकी खिलाफत सत्तारूढ़ दल के लोग करते रहे हैं। यही कारण रहा कि आज किसी भी मंत्री ने मुकदमा दर्ज होने पर लोकतंत्र पर हमला करार नहीं दिया।
कुछ समय पूर्व ही वरिष्ठ पत्रकार विनोद दुआ के खिलाफ भी एक मुकदमा सत्तारूढ दल के एक नेता की ओर से करवाया गया था।
ध्यान देने योग्य बात यह भी है कि केन्द्र सरकार की अनदेखी के चलते लाॅकडाउन और उसके उपरांत पत्रकारों को अनेक मीडिया हाउसेज आधे वेतन पर कार्य करवा रहे हैं। हजारों पत्रकारों की छंटनी भी हो चुकी है और अनेक समाचार पत्र अपने कार्यालय को बंद भी कर चुके हैं।
वहीं केन्द्र सरकार के सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय ने सांध्यदीप समाचार पत्र के टाइटल को भी निरस्त कर दिया है। इसके अलावा अनेक अन्य समाचार पत्रों के मालिकों के स्वामीत्व के अधिकार को निरस्त किया जा चुका है।
स्वतंत्रता दिवस के पावन अवसर पर उस पुलिस अधिकारी को भी केन्द्र सरकार की ओर से सम्मानित किया गया, जिसकी पत्रकार सतीश बेरी पर हमला करवाने में भी संदिग्ध भूमिका सामने आयी थी।
किसान आंदोलन पर राष्टरपति की चुप्पी असाधारण!
नई दिल्ली। पिछले दो माह से किसान दिल्ली में आंदोलन कर रहे हैं। आंदोलन के दौरान भीषण सर्दी से सौ से ज्यादा किसानों की मौत की खबर भी सामने आयी थी। केन्द्र सरकार और किसानो के बीच 10 दौर की वार्ता हुई और कोई नतीजा नहीं निकला। हैरानीजनक बात यह भी है कि केन्द्र सरकार के मंत्री वार्ता से पहले ही किसानों की मांग को ठुकरा देते थे और फिर से वार्ता करते थे।
किसान तीनों कृषि बिल वापिस करने की मांग को लेकर प्रदर्शन कर रहे हैं। तीन मंत्रियों का समूह बनाया गया था जो बार-बार वार्ता कर रहा था। इस तीन सदस्यीय समूह का विस्तार नहीं किया गया। वरिष्ठ मंत्रियों को शामिल करते हुए मंत्रियों के समूह का विस्तार किया जा सकता था जिससे किसानों को विश्वास में लेने में आसानी होती। किंतु वही मंत्री बार-बार वार्ता करते रहे जो मांग को मजबूती के साथ न तो प्रधानमंत्री तक पहुंचा पाये और न किसानों को ठोस आश्वासन दे पाये। मजबूत मंत्री होते तो प्रधानमंत्री तक यह सलाह भी पहुंचाते कि किसी तरह से आगामी कदम उठाया जाकर आंदोलन को समाप्त किया जा सकता है।
वहीं 60 दिन से अधिक चलने के बावजूद राष्टरपति ने एक बार भी स्वयं संज्ञान नहीं लिया और न ही ऐसी मीडिया रिपोर्ट सामने आयी कि उन्होंने कैबिनेट से इस संबंध में कोई सफाई मांगी है।
देश के करोड़ों किसान इस बिल का विरोध कर चुके हैं। इसके उपरांत भी राष्टरपति की ओर से इस मामले में हस्ताक्षेप नहीं किया जाना असधारण घटना है।
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